काशी के जितेन्द्र, 'आत्मनिर्भर भारत' की मिसाल
अनुज जायसवाल, वाराणसी जिस कहानी से आज हम आपको रूबरू कराने जा रहे हैं वो कहानी सारनाथ के जितेंद्र की हैं। यह जितेंद्र हिंदी सिनेमा जगत के हीरो नहीं बल्कि आज के समाज के रियल हीरो हैं। सारनाथ के हीरामनपुर गांव में रहने वाले जितेंद्र वर्मा के शरीर के नीचे का हिस्सा काम न करने के बावजूद भी जितेंद्र ने कभी हौसला नहीं हारा और पिछले 17 सालों से बिस्तर पर लेट कर ही सिलाई का काम करते आ रहे हैं, और अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। 23 फरवरी 2003 को जितेंद्र की ज़िंदगी से खुशियां चली गई थीं। एक अच्छे टेलर मास्टर की जिंदगी में उस मनहूस दिन ने वो भूचाल ला दिया कि अब वो बैठने के लायक भी नहीं रहे। आपको बता दें कि 2003 में हुए एक एक्सीडेंट में जितेंद्र के शरीर के निचले हिस्से ने काम करना बंद कर दिया था। उनकी रीढ़ की हड्डी में चोट लगने की वजह से अब वह कभी भी चल फिर नहीं सकते और न ही बैठ सकते हैं। लेकिन उन्होंने कभी भी अपना हौसला नहीं हारा और अपनी उम्मीद को बांधे रखा। यूं भरी हौसलों की उड़ान अपनी उम्मीद के सहारे जितेन्द्र खुशियों के पंख फैला रहे हैं। एनबीटी ऑनलाइन से बातचीत में जितेंद्र वर्मा ने बताया कि 23 फरवरी 2003 को छत से नीचे गिर गए थे। जिससे उनकी रीढ़ की हड्डी में चोट आ गई और डॉक्टर ने बताया कि वह अब कभी भी चल फिर नहीं सकते। यह बात सुनकर जितेंद्र उस वक्त अस्पताल में टूट जरूर गए थे। लेकिन जितेंद्र मानते हैं, कि जिंदगी में हार मानने जैसा कुछ भी नहीं होता अगर मनुष्य के पास हौसला, जज्बा और जुनून हो तो, वह अपने जीवन में कुछ भी कर सकता है। कोरोना काल में बांटे खुद के बनाए मास्क जितेंद्र ने दोबारा अपने सिलाई के काम को शुरू किया और अपने हुनर की अपनी पहचान बनाई। जितेंद्र बेड पर ही लेटे-लेटे लोगों के लिए कपड़े सिलते हैं। वहीं वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के चलते इन दिनों मास्क सिलकर अपने आसपास के मोहल्लों में मुफ्त में वितरण कर रहे हैं ताकि इस कोरोना वायरस से लड़ा जा सके। इसके साथ ही वो और लोगों को आत्मनिर्भर होने के गुर भी सिखाते हैं।
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